1380 ईस्वी पूर्व जब ईरान में धर्म परिवर्तन की लहर चली तो कई पारसियों ने अपना धर्म परिवर्तित कर लिया, लेकिन जिन्हें यह मंजूर नहीं था वे देश छोड़कर भारत आ गए। यहां आकर उन्होंने अपने धर्म के संस्कारों को आज तक सहेजे रखा है। सबसे खास बात ये कि समाज के लोग धर्म परिवर्तन के खिलाफ होते हैं।
पारसी समाज की लड़की किसी दूसरे धर्म में शादी कर लें तो उसे धर्म में रखा जा सकता है, लेकिन उनके पति और बच्चों को धर्म में शामिल नहीं किया जाता। ठीक इसी तरह लड़कों के साथ भी होता है। लड़का किसी दूसरे समुदाय में शादी करता है तो उसे और उसके बच्चों को धर्म से जुड़ने की छूट है, लेकिन उनकी पत्नी को नहीं।
पारसी धर्म की नींव पैगंबर जरथुस्त्र ने एक ईश्वरवाद का संदेश देते हुए डाली थी . प्राचीन फारस (आज का ईरान) जब पूर्वी यूरोप से मध्य एशिया तक फैला एक विशाल साम्राज्य था.
जरथुस्त्र व उनके अनुयायियों के बारे में विस्तृत इतिहास ज्ञात नहीं है। इसका कारण यह है कि पहले सिकंदर की फौजों ने तथा बाद में अरब आक्रमणकारियों ने प्राचीन फारस का लगभग सारा धार्मिक एवं सांस्कृतिक साहित्य नष्ट कर डाला था। जैसा अधिकांश आक्रमणकारी करते आये हैं.
आज हम इस इतिहास के बारे में जो कुछ भी जानते हैं, वह ईरान के पहाड़ों में उत्कीर्ण शिला लेखों तथा वाचिक परंपरा की बदौलत है।
करीब तेरह-चौदह सौ साल पहले जरथुस्त्र के अनुयायी ईरान से नावों में हजारों कोस सफर करके हिंदुस्तान के पश्चिमी किनारे पर उतरे। उनके आने की वजह यह थी कि अरबों ने वहां हमला कर उनपर इस्लाम आरोपित करना चाहा था। जिन लोगों ने अपना मजहब छोड़ना कबूल नहीं किया, वे ईरान छोड़कर हिंदुस्तान चले आए। उनको सनजान नाम के एक छोटे से गांव में पनाह मिली। सनजान भारत के पश्चिमी किनारे पर मुंबई से करीब सौ मील की दूरी पर है। सनजान के राजा जादव राना ने इन्हें शरण दी। वे ईरान के पार्स इलाके से निकलकर आए थे, इसलिए यहां आने पर पारसी कहलाए।
यहाँ वे ‘पारसी’ (फारसी का अपभ्रंश) कहलाए। आज विश्वभर में मात्र सवा से डेढ़ लाख के बीच जरथोस्ती हैं। इनमें से आधे से अधिक भारत में हैं।
सर्वोच्च अच्छाई ही हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। मनुष्य को अच्छाई से, अच्छाई द्वारा, अच्छाई के लिए जीना है। ‘हुमत’ (सद्विचार), ‘हुउक्त’ (सद्वाणी) तथा ‘हुवर्षत’ (सद्कर्म) जरथोस्ती जीवन पद्धति के आधार स्तंभ हैं।
भारत के सबसे छोटे समुदाय पारसी ने कभी खुद को अल्पसंख्यक नहीं महसूस किया। इसी मानसिकता ने उन्हें दूसरों के लिए रोल मॉडल के रूप में उभरने का मौका दिया।
पारसी विपरीत हालात में ईरान से भारत आए। उन्होंने अपनी संस्कृति संरक्षित रखी है। चाहे उद्योग हो, सेना हो, कानूनी पेशा हो, वास्तुकला हो या सिविल सेवाएं हो, हर जगह शीर्ष पर पहुंचने की क्षमता दिखाई है।
गुजरात के जिस उदवाडा शहर में ये सदियों पहले आए थे, उसे वैश्विक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। जहां ब्रिटिश संसद में एक पारसी सदस्य है, भारतीय संसद में कोई नहीं है। पारसी समुदाय की समृद्ध संस्कृति महत्वपूर्ण और देश की अमूल्य विरासत का अभिन्न हिस्सा है।
कहा जाता है इनको भारत आने पर जब राजा ने स्वागत में पिने के लिए दूध दिया था , उन्होंने उसमे चीनी मिलकर वापस कर दिया था . अभिप्राय यह की हमें अवसर प्रदान कीजिये हम आपके समाज और संस्कृति में दूध में चीनी कर मिल जायेंगे और उसे मीठा कर देंगे .
समाज का कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे शहर या देश से यहां आता है तो उसके रहने और खाने की व्यवस्था पूर्ण आस्था और सेवाभाव से करते हैं।
* समाज के लोगों को एक सूत्र में पिरोए रखने के लिए कभी गलत राह नहीं पकड़ी। आज भी पारसी समाज बंधु अपने धर्म के प्रति पूर्ण आस्था रखते हैं। नववर्ष और अन्य पर्वों के अवसर पर लोग पारसी धर्मशाला में आकर पूजन करते हैं।
* पारसी समुदाय धर्म परिवर्तन पर विश्वास नहीं रखते।
* यह सही है कि शहरों और गांवों में इस समाज के कम लोग ही रह गए हैं। खासकर युवा वर्ग ने करियर और पढ़ाई के सिलसिले में शहर छोड़कर बड़े शहरों की ओर रुख कर लिया है, लेकिन हां, कुछ युवा ऐसे भी हैं, जो अपने पैरेंट्स की केयर करने आज भी शहर में रह रहे हैं।
बजान के अनुसार हमारे भगवान प्रौफेट जरस्थ्रु का जन्म दिवस 24 अगस्त को मनाया जाता है। नववर्ष पर खास कार्यक्रम नहीं हो पाते इस वजह से 24 अगस्त को पूजन और अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता हैं। यह दिन भी हमारे पर्वों में सबसे खास होता है। उनके नाम के कारण ही हमें जरस्थ्रुटी कहा जाता है।
पारसियों के लिए यह दिन सबसे बड़ा होता है। इस अवसर पर समाज के सभी लोग पारसी धर्मशाला में इकट्ठा होकर पूजन करते हैं। समाज में वैसे तो कई खास मौके होते हैं, जब सब आपस में मिलकर पूजन करने के साथ खुशियां भी बांटते हैं, लेकिन मुख्यतः तीन मौके साल में सबसे खास हैं। एक खौरदाद साल, प्रौफेट जरस्थ्रु का जन्मदिवस और तीसरा 31 मार्च। ईराक से कुछ सालों पहले आए अनुयायी 31 मार्च को भी नववर्ष मनाते हैं।
नववर्ष पारसी समुदाय में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। धर्म में इसे खौरदाद साल के नाम से जाना जाता है। पारसियों में एक वर्ष 360 दिन का और शेष पांच दिन गाथा के लिए होते हैं। गाथा यानी अपने पूर्वजों को याद करने का दिन। साल खत्म होने के ठीक पांच दिन पहले से इसे मनाया जाता है।
इन दिनों में समाज का हर व्यक्ति अपने पूर्वजों की आत्मशांति के लिए पूजन करता है। इसका भी एक खास तरीका है। रात साढ़े तीन बजे से खास पूजा-अर्चना होती है। धर्म के लोग चांदी या स्टील के पात्र में फूल रखकर अपने पूर्वजों को याद करते हैं।
पारसी समाज में अग्नि का भी विशेष महत्व है और इसकी खास पूजा भी की जाती है। नागपुर, मुंबई, दिल्ली और गुजरात के कई शहरों में आज भी कई सालों से अखण्ड अग्नि प्रज्ज्वलित हो रही है। इस ज्योत में बिजली, लकड़ी, मुर्दों की आग के अलावा तकरीबन आठ जगहों से अग्नि ली गई है। इस ज्योत को रखने के लिए भी एक विशेष कमरा होता है, जिसमें पूर्व और पश्चिम दिशा में खिड़की, दक्षिण में दीवार होती है।
पारसी धर्म दुनिया के कुछ सबसे पुराने धर्मों में से एक है. इस समुदाय के लोग फारसी लोगों के वंशज हैं. वह इलाका आजकल ईरान के नाम से जाना जाता है. ये लोग करीब 1000 साल पहले ही फारस में उन पर ढाए जा रहे अत्याचारों से बचने के लिए अपना देश छोड़कर भारत आ गए थे. ये समुदाय आगे चलकर भारत के सबसे अमीर लोगों का समूह बना, जिनका मुंबई के विकास में भी बड़ा योगदान माना जाता है.
पारसी समुदाय के चमकते सितारों में उद्योगपति टाटा समूह से लेकर रॉकस्टार फ्रेडी मर्करी तक शामिल हैं. भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने वाले फिरोजशाह मेहता, दादा भाई नौरोजी और भीकाजी कामा भी पारसी ही थे.
घटती जा रही है आबादी
लेकिन पारसी समुदाय के सामने अब ये समस्या मुंह बाए खड़ी है कि घटती जनसंख्या के साथ साथ अपने धर्म और संस्कृति को कैसे बचाया जाए. मुम्बई में पारसी समुदाय के लिए पारसीआना नाम की पत्रिका के संपादक जहांगीर पटेल कहते हैं, “जनसंख्या के लिहाज से आप ज्यादा कुछ नहीं कर सकते. ये कम होते होते एक दिन गायब ही हो जाएगी.”
जरथुश्ट्र संप्रदाय के लोग एक ईश्वर को मानते हैं जो ‘आहुरा माज्दा’ कहलाते हैं. ये लोग प्राचीन पैगंबर जरथुश्ट्र की शिक्षाओं को मानते हैं. पारसी लोग आग को ईश्वर की शुद्धता का प्रतीक मानते हैं और इसीलिए आग की
पूजा करते हैं. वे ईरान, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे बहुत से देशों में फैले हुए हैं. दुनिया भर में इनकी औसत संख्या 2004 से 2012 के बीच 10 प्रतिशत से भी ज्यादा गिर कर 112,000 से भी कम रह गई है.