शनिवार, 26 मार्च 2016

दिल बात सच्ची बात



कह  रहीम कैसे निभे बेर केर को संग
वो डोलत रस आपने उनके फारत अंग

बात ह्रदय से विचार करने वाली है .....एक साधारण सा व्यक्ति और एक महान धूर्त , समझ में अंतर तो होगा ही विचार में भी बड़ा अंतर होता है . नौकरी के क्षेत्र में विशेषकर यह परेरशानी    होती है . ईमानदार और परिश्रमी कर्मचारी दिल से और पूरी मेहनत से काम करता है , उसका बॉस केवल गलती ढुढता रहता है . तारीफ करने के बजाय ऐसी टिप्पड़ी कर देता है की उसका ह्रदय विदीर्ण हो जाता है . सोचता है क्या इन्होने कभी कोई गलती नहीं की होगी ? या ये कार्य ये खुद करते तो कैसा करते ? करने वाला कैसे किया जाय  ? यहाँ सोचता रहता है और बोलने वाला क्या बोलेँ की उसको चोट लगे एसोचता रहता है   ?  विशेषकर अगर अधिकारी  काम योग्य हो तो उसका पूरा समय गलती निकलने में ही चला जाता है .योग्य अधिकारी आपने कनिष्ठ सहयोगी को और अच्छा करने के लिए प्यार से समझाता है जो उसके ह्रदय पर अमिट   छप छोड़ देता है .कनिष्ठ सहयोगी अथक परिश्रम करके जो रिपोर्ट तैयार करता है बरिष्ठ अपना कह कर मैनेजमेंट के सामने प्रस्तुत कर देता है और बधाईयां लूट लेता है , उसकी पीठ थप  थथाई जाती है उसे लगता है जब तक ऐसे मुर्ख कार्य करते रहेंगे उस कार्य आपने आप होता रहेगा . शायद यही इस दुनिया में होता है . विशेषकर ांऑर्गनिजेद क्षेत्र में कार्य करने वालों के साथ ऐसा ज्यादे होता है .

सरकारी क्षेत्रों में कार्य करनेवाले इन सम्बेदनाओं से बच जाते हैं मैथिलि शरण गुप्त ने सुन्दर चित्रण किया है

शिक्छे तुम्हारा नाश हो तो तूँ नौकरी के हित बनी

और

जो सुन सकोगे सर झुकाकर अप्सरों की गालियां
तो दे सकेगी शाम को दो रोटियां घरवालियां

क्या किया जाय सत्य बहुत कड़वा होता है और स्वीकारना कठिन .


गोरखपुर विश्वविद्यालय और डॉ चन्द्र बदन तिवारी





Although the idea of residential University at Gorakhpur was first mooted by C. J. Chako, the then Principal of St. Andrews College, then under Agra University, who initiated post-graduate and undergraduate science teaching in his college, the idea got crystallized and took concrete shape by the untiring efforts of Dr S. N. M.Tripathi.ICS.who was actively thinking of establishing the University in Gorakhpur when he was collector at Gorakhpur.

The proposal was accepted in principle by the  Chief Minister of U.P., Gobind Ballabh Pant, but it was only in 1956 that the University came into existence by an act passed by the U.P. Legislature.

  Mahant Digvijay Nath also made valuable contribution in the formation of the University.

  It actually started functioning since 1 September 1957, when the faculties of Arts, Commerce, Law and Education were started Geography department started its functioning on 16th July 1958, one year after the inception of University. Geography Department of the Maharana Pratap Degree College, Gorakhpur was merged in the university.

At  the initial stage  time there were only three faculties in Geography  department. Dr. Mahatma Singh as the Head of the department and Dr. Chandra Badan Tiwari and Dr. (Miss) Surinder Pannu as lecturers.

 Dr. Chandra Badan Tiwari, the senior most Lecturer ( one of the founders ) was appointed as Reader in Dec.1977. Phirtu Ram Chauhan joined the department in Januaryl978 to fill the vacancy of Dr. M. Singh who was retired earlier .Before joining the department he was serving at Sant Vinoba Degree College Deoria on same post Dr. Ujagir Singh retired on 30th June 1979 after serving the department as Professor and Head for about 12 years.

Dr. C.B.Tiwari ( Chandra Badan Tiwari) left the department as he became Principal of Buddha P.G. College Kushinagar, by the end of 1980 and thereafter he was elevated as Vice-Chancellor of Meerut University. The department shifted in new building of its own on 26th Jan. 1981. In Feb.1981 Dr. Jagdish Singh was appointed as Professor and V K.Srivastava as Reader.

Hostels
• Sant Kabir Hostel
• Gautam Buddha Hostel
• Vivekanand Hostel
• Nath Chandravat Hostel
• Rani Lakshmi Bai Mahila Hostel world

Notable alumni



गोरखपुर  विश्वविद्यालय और डॉ चन्द्र बदन तिवारी




कहते है जब  किसी कार्य वश डॉ सी बी तिवारी बुद्धा स्नातकोत्तर महाविद्यालय के प्राचार्य थे, लखनऊ गए थे , उस समय श्री वीर बहादुर सिंह उत्तर प्रदेश मुख्य मंत्री थे उनसे मिले उन्होंने बड़े आदर भाव से उनका स्वागत किया . वास्तव में एक गुरु और उसके छात्र का  यह मिलन बड़ा ही मनमोहक था . गुरु के चेहरे पर गर्व एवं संतोष का चिन्ह था की उनका छात्र उन्ही के प्रदेश का मुख्य मंत्री है . और क्या चाहिए ??
सुबह वे लखनऊ से गोरखपुर सुबह पहुंचे तो उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा लोग फूल माला हर लेकर उनका स्वागत करने के लिए भोर में ही गोरखपुर रेलवे स्टेशन पहुंचे हुए थे . उन्होंने लोगों से पूछा क्या बात है भाई ??

लोगों ने बताया ये लोग आज का अख़बार पढ़कर आये है ----आप मेरठ विश्वविद्यालय के वाईस चांसलर बन गए हैं. और उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं था , जब लोगों ने अख़बार दिखाया फिर उन्हें विश्वास हुआ .







बुधवार, 23 मार्च 2016

Anahat: पिता जी यादें और होली

Anahat: पिता जी यादें और होली: कल होली मनाई जाएगी 24 /3/2016     होली में जो गीत / फ़ाग गया जाता है , उसका साहित्यिक अर्थ बहुत भावनात्मक होता है . पिता जी स्वर्गिव श्री ...

पिता जी यादें और होली


कल होली मनाई जाएगी 24 /3/2016    
होली में जो गीत / फ़ाग गया जाता है , उसका साहित्यिक अर्थ बहुत भावनात्मक होता है .
पिता जी स्वर्गिव श्री अवधेश कुमार तिवारी से जो फ़ाग सुनाथा, स्मिृति को प्रणाम करते हुए उसे लिपिवद्ध करने का मन कर रहा है . शायद किसी को आनंद आ जाय .
 पिता जी की बड़ी याद आ रही है


जमुना  तट कदम की डारी
श्याम बाजी मुरलिया तुम्हारी
जुलुम हो गए भारी
कारन सिंगार लगी हाली हाली
अंखिया में सेनुर काजर मंगिआ में डारी
माथे सुरमा मलन लगी प्यारी
ककही लेके चेहरा निहारी
जुलुम हो गए भारी
कांठा हूमेल हार
नाइ लेनी गोड़वा
कड़ा करधनिया झुलाई लेनी गरवा
शीशा उठाई मांग झारी

Anahat: होली और भांग

Anahat: होली और भांग: होली और भांग बचपन से देखता आ रहा हूँ होली के दिन भांग बनता ही है , जैसे इसके बिना जैसे ये त्यौहार मनाया ही नहीं जा सकता . त्यौहार का अर्थ...

होली और भांग

होली और भांग

बचपन से देखता आ रहा हूँ होली के दिन भांग बनता ही है , जैसे इसके बिना जैसे ये त्यौहार मनाया ही नहीं जा सकता . त्यौहार का अर्थ केवल मौज और हुडदंड ही नहीं है . कितना अच्छा होता यदि बिना नशा के त्यौहार मनाया जाय . किसी को भांग नशा चढ़ जाय उसकी हालत विचित्र हो जाती है.
जिन राज्यों में यह आसानी से उपलब्ध है , वहां तो गनीमत है लेकिन जहाँ पर सरकार की व्यवस्था इसकी बिक्री के विरद्ध है वहां तो यह व्यापर का एक माध्यम बना हुआ है . विशेषकर शिव रात्रि और होली के दिन भारी कीमत चुकानी पड़ती है .

शायद यह इस त्यौहार की मूल भावना से मेल नहीं खता है . तो क्या करें शक्ति से इसका परित्याग करें . लोगों इससे होने वाली हानि से अवगत कराएं .

१.   इसका असर दिमाग पर पडता है.
२.   भांग के सेवन से साइड इफेक्ट होता है.
३.    भांग का सेवन करने वालों में यूफोरिया, एंजाइटी, याददाश्त का असंतुलित होना, साइकोमोटर    परफार्मेंस जैसी समस्याएं पैदा हो जाती हैं।

कुछ लोग भांग की जगह या भांग के साथ शराब का भी नशा करते हैं। जो और हानिकारक और चिंतनीय स्थिति है . ऐसा करने वाले व्यक्ति किसी नहीं सुनते उनको तो केवल लाभ ही लाभ दिखाई देता है . आवश्कता है उन्हें प्यार से समझाया जाय और इससे होने वाली परेशानियों से अवगत कराया जाय .

    सौभाग्य से आयुर्वेद में इन दोनों ही नशों को उतारने का उपाय बताया गया है।
भांग और शराब का नशा उतारने के कई तरीके हैं जो निम्न प्रकार हैं-

(1) आयुर्वेद के अनुसार खटाई से किसी भी तरह का नशा उतर   उतर जाता है। अगर किसी को भांग या शराब बहुत ज्यादा चढ़ गई हो तो उसे नींबू, छाछ, खट्टा दही, कैरी (कच्चा आम) की छाछ या इमली का पानी बनाकर पिला दें, उसका नशा कुछ ही मिनटों में दूर हो जाएगा।

(2) ऐसे फ्रूट्स जो खट्टे हो जैसे नींबू, संतरा, अंगूर आदि में मौजूद एंटीऑक्सीडेंट्स नशे देने वाले केमिकल्स को बेअसर करने की क्षमता रखते हैं।
नारियल पानी और सरसों के तेल से भी उतरता है नशा

(3) नारियल पानी पीने से भी नशा कम होता है। इसमें मिनरल तथा इलेक्ट्रोलेट्स होते हैं जो बॉडी को रिहाइड्रेट कर देते हैं जिससे नशे के कारण शरीर में पैदा हुई ड्राईनेस खत्म होती है और नशा उतर जाता है।

(4) अगर बहुत ज्यादा भांग पीने के कारण आदमी बेहोशी की हालत में हो तो सरसों का तेल हल्का गुनगुना करके उस व्यक्ति के दोनों कानों में एक-दो बूंद डाल देने से बेहोशी टूट जाती है।

कुछ लोग कहते हैं केले के तने काभी रस दिया जाता है .



(5) कुछ लोग भांग का नशा उतारने के लिए देसी घी का भी प्रयोग करते हैं। लेकिन यह उपाय तभी काम करता है जब देसी घी शुद्ध हो तथा बहुत अधिक मात्रा में खाया जाए।

(6) चुटकी भर अदरक भी अच्छे से अच्छे नशे को उतारने की क्षमता रखती है।

भांग के नशे में  अधिकांश रिसेप्टर्स मस्तिष्क के उन हिस्सों में पाए जाते हैं जो कि खुशी, स्‍‍मृति, सोच, एकाग्रता, संवेदना और समय की धारणा को प्रभावित करते हैं। भांग के रासायनिक यौगिक आंख, कान, त्वचा और पेट को प्रभावित करते हैं।
इससे स्मरण शक्ति भी दुष्प्रभावित होती है . आजकल स्मरण शक्ति को बढ़ाने के लिए अलग अलग दवाएं बाजार में उपलब्ध है लेकिन ऐसा कार्य ही क्यों किया जाय की जिन हानिकारक चीजों का प्रयोग करने से तकलीफ होती हो उसे प्रयोग ही क्यों किया जाय ??? लेकिन ये सब समस्या पैदा ही क्यों हो ????

हिम्मत करके छोड़ दीजिये  परेशानी से मुक्ति मिलेगी ही आपके शुभचिंतक , आश्रित और आप स्वयं इससे बच जायेंगें .
                       
पीने वालों को पीने का बहन चाहिए ......








मंगलवार, 22 मार्च 2016

वृद्धावस्था



वृद्धावस्था


वृद्धावस्था कोई आश्चर्य जनक घटना नहीं है
मनुस बेचारे की बात करे कौन हरिहर ,
दिनकर की तीन गति होत एक दिन में.
जिसने जन्म लिया है उसे मरना भी होता है . लेकिन मैं मरूंगा यह बात मानाने को कोई तैयार नहीं होता . सिद्धार्थ जब किसी व्यक्ति की अंतिम यात्रा देखकर उत्सुकता बस पूछते है तो उन्हें बताया जाता है की इनकी मौत हो चुकी है .शायद ऐसी बात ने उन्हें सोचने पर मजबूर कर दिया …..एक दिन सबको मरना होता है……
जब आदमी चकाचौध के कारन समझ नहीं पाता है तो कहता है मरने के पहले जिन्दा रहना है . अभिप्राय यह की वह जो कुछ कर रहा है जीने के लिए कर रहा है..
वास्तविक ज्ञान शमशान भूमि में ही प्राप्त होता है . इसीलिए घर आते ही उसे लाल मिर्च खाने के लिए
दिया जाता है , तीखा लगेगा तो जो ज्ञान उत्पन्न हुआ था , वह विचलित हो जाता है , इस दुनिया वापस आ जाता है ……..शायद यही इस दुनियां की वास्तविकता है.
समय का चक्र तो अबाध गति से चलता रहता है। नियति का स्वाभाव है। आज जो बालक है वह कल युवा तो परसों वृद्ध होगा। इसकी कोइ निश्चित आयु सीमा नहीं है , कोई समय से पहले ही बूढा हो जाता है . कोई कुछ अधिक आयु सीमा जवान ही बने रहने का दिखावा करता है.
यह निर्विवाद सत्य है कि वृद्धावस्था में मनुष्य का शरीर कमजोर हो जाता है… सोचने की छमता भी धूमिल होने लगाती है .सबकी अपनी सोच है मैंने बचपन से वृद्ध लोंगो को अधिक सम्मान दिया है ,हालाँकि उस समय सोच भी उम्र के स्तर से कुछ बड़ी लगाती थी ….लगता था इनके साथ वितायें गए क्षणों में बहुत कुछ सीखने को मिलेगा और मिला भी.
अब धीरे धीरे उस दिशा की बढ़ रहे हैं तो लगता है अनुभव वृद्ध तो बहुत पहले हो गया था अब साफ़ साफ़ दिखाई देने लगा है .
बर्रे बालक एक स्वभाउ …………भी समझ में आने लगा है सोचा लिपिबद्ध करने से समय भी कटेगा और शायद इस अनुभव का कुछ लाभ किसी को मिल सके.
जीवन में जिस वृद्ध को मैंने नज़दीक से देखा वह अत्यंत स्वार्थी व्यक्ति हमेशा अपने बारे में ही सोचने में लगा रहना , दूसरे के विषय अपने स्वार्थ की प्रतिपूर्ति में ही सोचना ….. शायद यही सीमा सोच की सीमा थी.लेकिन इससे कुछ भी फर्क नहीं पड़ता.              आया है सो जायेगा राजा रैंक फ़क़ीर
निम्न पक्तियां मुझे कुछ सोचने का मार्ग दिखा देती हैं
ख़ुदा ने खुदकशी कर ली जो देखा जान के बाद ,
जमीं पे कोई नमूना न आदमी का रहा
शायद यही इस जग की सच्चाई है . वृद्धावस्था में ज्ञान की चक्छुयें अत्यंत संवेदनशील हो जाती है .
आज के इस व्यस्ततम जीवन में किसी के पास किसी के लिए समय नहीं है
जिंदगी सवारने की चाहत में,
हम इतने मशगूल हो गए…
चंद सिक्कों से तो रूबरू हुए,
पर ज़िन्दगी से दूर हो गए.
और फिर वही बात आती है सबकुछ लूटाके होश में आया तो क्या किया ???
कहते हैं…………. आओ जिंदगी के विषय में कुछ सोचें और उदास होएं ……
सच में अगर सोचते हैं तो उदास ही होंगें
R D N Srivastav  की कविता यहाँ पे याद आती है
जिंदगी एक कहानी है समझ लीजिये
दर्द भरी लन्ति रानी समझ लीजिये
चहरे पर खिले ये अक्षांश देशान्तर
उम्र की छेड़ कहानी समझ लीजिये
यह कहना गलत है कि कमी के कारण सीनियर सिटिजंस की देखभाल नहीं कर पाते। दरअसल नई पीढ़ी आत्मग्रस्त होती जा रही है। बसों में वे सीनियर सिटिजंस को जगह नहीं देते। बुजुर्ग अकेलापन झेल रहे हैं क्योंकि युवा पीढ़ी उन्हें लेकर बहुत उदासीन हो रही है , मगर हमें भी अब इन्हीं सबके बीच जीने की आदत पड़ गई है। सीनियर सिटिजंस की तकलीफ की एक बड़ी वजह युवाओं का उनके प्रति कठोर बर्ताव है।
लाइफ इतनी फास्ट हो गयी है की सीनियर सिटिजंस के लिए उसके साथ चलना असंभव हो गया है। एक दूसरी परेशानी यह है कि युवा पीढ़ी सीनियर सिटिजंस की कुछ भी सुनने को तैयार नहीं- घर में भी और बाहर भी। दादा-दादियों को भी वे नहीं पूछते, उनकी देखभाल करना तो बहुत दूर की बात है। जिंदगी की ढलती साँझ में थकती काया और कम होती क्षमताओं के बीच हमारी बुजुर्ग पीढ़ी का सबसे बड़ा रोग असुरक्षा के अलावा अकेलेपन की भावना है।
बुजुर्ग लोगों को ओल्ड एज होम में भेज देने से उनकी परिचर्या तो हो जाती है, लेकिन भावनात्मक रूप से बुजुर्ग लोगों को वह खुशी और संतोष नहीं मिल पाता, जो उन्हें अपने परिजनों के बीच में रहकर मिलता है। शहरी जीवन की आपाधापी तथा परिवारों के घटते आकार एवं बिखराव ने समाज में बुजुर्ग पीढ़ियों के लिए तमाम समस्याओं को बढ़ा दिया है। कुछ परिवारों में इन्हें बोझ के रूप में लिया जाता है।
वृद्धावस्था में शरीर थकने के कारण हृदय संबंधी रोग, रक्तचाप, मधुमेह, जोड़ों के दर्द जैसी आम समस्याएँ तो होती हैं, लेकिन इससे बड़ी समस्या होती है भावनात्मक असुरक्षा की। भावनात्मक असुरक्षा के कारण ही उनमें तनाव, चिड़चिड़ाहट, उदासी, बेचैनी जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं। मानवीय संबंध परस्पर प्रेम और विश्वास पर आधारित होते हैं। लेकिन इसे समझनेवाला है कौन ??
जिंदगी की अंतिम दहलीज पर खड़ा व्यक्ति अपने जीवन के अनुभवों को अगली पीढ़ी के साथ बाँटना चाहता है, लेकिन उसकी दिक्कत यह होती है कि युवा पीढ़ी के पास उसकी बात सुनने के लिए पर्याप्त समय ही नहीं होता।

सोमवार, 21 मार्च 2016

पारसी समुदाय और भारत

पारसी समुदाय और भारत





1380 ईस्वी पूर्व जब ईरान में धर्म परिवर्तन की लहर चली तो कई पारसियों ने अपना धर्म परिवर्तित कर लिया, लेकिन जिन्हें यह मंजूर नहीं था वे देश छोड़कर भारत आ गए। यहां आकर उन्होंने अपने धर्म के संस्कारों को आज तक सहेजे रखा है। सबसे खास बात ये कि समाज के लोग धर्म परिवर्तन के खिलाफ होते हैं।
पारसी समाज की लड़की किसी दूसरे धर्म में शादी कर लें तो उसे धर्म में रखा जा सकता है, लेकिन उनके पति और बच्चों को धर्म में शामिल नहीं किया जाता। ठीक इसी तरह लड़कों के साथ भी होता है। लड़का किसी दूसरे समुदाय में शादी करता है तो उसे और उसके बच्चों को धर्म से जुड़ने की छूट है, लेकिन उनकी पत्नी को नहीं।
पारसी धर्म की नींव पैगंबर जरथुस्त्र ने एक ईश्वरवाद का संदेश देते हुए डाली थी . प्राचीन फारस (आज का ईरान) जब पूर्वी यूरोप से मध्य एशिया तक फैला एक विशाल साम्राज्य था.
जरथुस्त्र व उनके अनुयायियों के बारे में विस्तृत इतिहास ज्ञात नहीं है। इसका कारण यह है कि पहले सिकंदर की फौजों ने तथा बाद में अरब आक्रमणकारियों ने प्राचीन फारस का लगभग सारा धार्मिक एवं सांस्कृतिक साहित्य नष्ट कर डाला था। जैसा अधिकांश आक्रमणकारी करते आये हैं.
आज हम इस इतिहास के बारे में जो कुछ भी जानते हैं, वह ईरान के पहाड़ों में उत्कीर्ण शिला लेखों तथा वाचिक परंपरा की बदौलत है।
करीब तेरह-चौदह सौ साल पहले जरथुस्त्र के अनुयायी ईरान से नावों में हजारों कोस सफर करके हिंदुस्तान के पश्चिमी किनारे पर उतरे। उनके आने की वजह यह थी कि अरबों ने वहां हमला कर उनपर इस्लाम आरोपित करना चाहा था। जिन लोगों ने अपना मजहब छोड़ना कबूल नहीं किया, वे ईरान छोड़कर हिंदुस्तान चले आए। उनको सनजान नाम के एक छोटे से गांव में पनाह मिली। सनजान भारत के पश्चिमी किनारे पर मुंबई से करीब सौ मील की दूरी पर है। सनजान के राजा जादव राना ने इन्हें शरण दी। वे ईरान के पार्स इलाके से निकलकर आए थे, इसलिए यहां आने पर पारसी कहलाए।
यहाँ वे ‘पारसी’ (फारसी का अपभ्रंश) कहलाए। आज विश्वभर में मात्र सवा से डेढ़ लाख के बीच जरथोस्ती हैं। इनमें से आधे से अधिक भारत में हैं।
सर्वोच्च अच्छाई ही हमारे जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। मनुष्य को अच्छाई से, अच्छाई द्वारा, अच्छाई के लिए जीना है। ‘हुमत’ (सद्विचार), ‘हुउक्त’ (सद्वाणी) तथा ‘हुवर्षत’ (सद्कर्म) जरथोस्ती जीवन पद्धति के आधार स्तंभ हैं।

भारत के सबसे छोटे समुदाय पारसी ने कभी खुद को अल्पसंख्यक नहीं महसूस किया। इसी मानसिकता ने उन्हें दूसरों के लिए रोल मॉडल के रूप में उभरने का मौका दिया।
पारसी विपरीत हालात में ईरान से भारत आए। उन्होंने अपनी संस्कृति संरक्षित रखी है। चाहे उद्योग हो, सेना हो, कानूनी पेशा हो, वास्तुकला हो या सिविल सेवाएं हो, हर जगह शीर्ष पर पहुंचने की क्षमता दिखाई है।
गुजरात के जिस उदवाडा शहर में ये सदियों पहले आए थे, उसे वैश्विक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में विकसित किया जाना चाहिए। जहां ब्रिटिश संसद में एक पारसी सदस्य है, भारतीय संसद में कोई नहीं है। पारसी समुदाय की समृद्ध संस्कृति महत्वपूर्ण और देश की अमूल्य विरासत का अभिन्न हिस्सा है।
कहा जाता है इनको भारत आने पर जब राजा ने स्वागत में पिने के लिए दूध दिया था , उन्होंने उसमे चीनी मिलकर वापस कर दिया था . अभिप्राय यह की हमें अवसर प्रदान कीजिये हम आपके समाज और संस्कृति में दूध में चीनी कर मिल जायेंगे और उसे मीठा कर देंगे .
समाज का कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे शहर या देश से यहां आता है तो उसके रहने और खाने की व्यवस्था पूर्ण आस्था और सेवाभाव से करते हैं।
* समाज के लोगों को एक सूत्र में पिरोए रखने के लिए कभी गलत राह नहीं पकड़ी। आज भी पारसी समाज बंधु अपने धर्म के प्रति पूर्ण आस्था रखते हैं। नववर्ष और अन्य पर्वों के अवसर पर लोग पारसी धर्मशाला में आकर पूजन करते हैं।
* पारसी समुदाय धर्म परिवर्तन पर विश्वास नहीं रखते।
* यह सही है कि शहरों और गांवों में इस समाज के कम लोग ही रह गए हैं। खासकर युवा वर्ग ने करियर और पढ़ाई के सिलसिले में शहर छोड़कर बड़े शहरों की ओर रुख कर लिया है, लेकिन हां, कुछ युवा ऐसे भी हैं, जो अपने पैरेंट्स की केयर करने आज भी शहर में रह रहे हैं।
बजान के अनुसार हमारे भगवान प्रौफेट जरस्थ्रु का जन्म दिवस 24 अगस्त को मनाया जाता है। नववर्ष पर खास कार्यक्रम नहीं हो पाते इस वजह से 24 अगस्त को पूजन और अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता हैं। यह दिन भी हमारे पर्वों में सबसे खास होता है। उनके नाम के कारण ही हमें जरस्थ्रुटी कहा जाता है।
पारसियों के लिए यह दिन सबसे बड़ा होता है। इस अवसर पर समाज के सभी लोग पारसी धर्मशाला में इकट्ठा होकर पूजन करते हैं। समाज में वैसे तो कई खास मौके होते हैं, जब सब आपस में मिलकर पूजन करने के साथ खुशियां भी बांटते हैं, लेकिन मुख्यतः तीन मौके साल में सबसे खास हैं। एक खौरदाद साल, प्रौफेट जरस्थ्रु का जन्मदिवस और तीसरा 31 मार्च। ईराक से कुछ सालों पहले आए अनुयायी 31 मार्च को भी नववर्ष मनाते हैं।
नववर्ष पारसी समुदाय में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। धर्म में इसे खौरदाद साल के नाम से जाना जाता है। पारसियों में एक वर्ष 360 दिन का और शेष पांच दिन गाथा के लिए होते हैं। गाथा यानी अपने पूर्वजों को याद करने का दिन। साल खत्म होने के ठीक पांच दिन पहले से इसे मनाया जाता है।
इन दिनों में समाज का हर व्यक्ति अपने पूर्वजों की आत्मशांति के लिए पूजन करता है। इसका भी एक खास तरीका है। रात साढ़े तीन बजे से खास पूजा-अर्चना होती है। धर्म के लोग चांदी या स्टील के पात्र में फूल रखकर अपने पूर्वजों को याद करते हैं।
पारसी समाज में अग्नि का भी विशेष महत्व है और इसकी खास पूजा भी की जाती है। नागपुर, मुंबई, दिल्ली और गुजरात के कई शहरों में आज भी कई सालों से अखण्ड अग्नि प्रज्ज्वलित हो रही है। इस ज्योत में बिजली, लकड़ी, मुर्दों की आग के अलावा तकरीबन आठ जगहों से अग्नि ली गई है। इस ज्योत को रखने के लिए भी एक विशेष कमरा होता है, जिसमें पूर्व और पश्चिम दिशा में खिड़की, दक्षिण में दीवार होती है।
पारसी धर्म दुनिया के कुछ सबसे पुराने धर्मों में से एक है. इस समुदाय के लोग फारसी लोगों के वंशज हैं. वह इलाका आजकल ईरान के नाम से जाना जाता है. ये लोग करीब 1000 साल पहले ही फारस में उन पर ढाए जा रहे अत्याचारों से बचने के लिए अपना देश छोड़कर भारत आ गए थे. ये समुदाय आगे चलकर भारत के सबसे अमीर लोगों का समूह बना, जिनका मुंबई के विकास में भी बड़ा योगदान माना जाता है.
पारसी समुदाय के चमकते सितारों में उद्योगपति टाटा समूह से लेकर रॉकस्टार फ्रेडी मर्करी तक शामिल हैं. भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेने वाले फिरोजशाह मेहता, दादा भाई नौरोजी और भीकाजी कामा भी पारसी ही थे.
घटती जा रही है आबादी
लेकिन पारसी समुदाय के सामने अब ये समस्या मुंह बाए खड़ी है कि घटती जनसंख्या के साथ साथ अपने धर्म और संस्कृति को कैसे बचाया जाए. मुम्बई में पारसी समुदाय के लिए पारसीआना नाम की पत्रिका के संपादक जहांगीर पटेल कहते हैं, “जनसंख्या के लिहाज से आप ज्यादा कुछ नहीं कर सकते. ये कम होते होते एक दिन गायब ही हो जाएगी.”
जरथुश्ट्र संप्रदाय के लोग एक ईश्वर को मानते हैं जो ‘आहुरा माज्दा’ कहलाते हैं. ये लोग प्राचीन पैगंबर जरथुश्ट्र की शिक्षाओं को मानते हैं. पारसी लोग आग को ईश्वर की शुद्धता का प्रतीक मानते हैं और इसीलिए आग की पूजा करते हैं. वे ईरान, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे बहुत से देशों में फैले हुए हैं. दुनिया भर में इनकी औसत संख्या 2004 से 2012 के बीच 10 प्रतिशत से भी ज्यादा गिर कर 112,000 से भी कम रह गई है.

होली 2016

होली 2016


होली 2016
लहरों से लेकर हिचकोले,पवन से अठखेली
चौखट-चौखट बजा मंजीरे, फिरती अलबेली
कहीं से लाई रंग केसरी, कहीं से कस्तूरी
लाजलजीली हुई कहीं पर खुल कर भी खेली
त्यौहार का अर्थ आपस में मिलकर सामूहिक रूप से खुशियां मनाना है . भारतवर्ष में हजारों वर्ष से लोग होली का त्यौहार मनाते हैं ! होली के त्यौहार की बहुत सी प्रमुखमान्यताये हैं! सबसे पहली तो यह त्यौहार बसंत ऋतु के आगमन तथा नये मौसम के साथ, अच्छी फ़सल और समृधि के लिए मनाया जाताहैं!
हिन्दू रंगों के साथ नए मौसम का आगमन और ठण्ड के मौसम को विदाई देते हैं!
यह त्यौहार अन्य कई पौराणिक कथाओं से भी जुडी हुई हैं ! यह बहुत ही धार्मिक और आनन्दमय त्योहारों में से एक हैं! होली के एक दिनपहले होलिका जलाई जाती हैं जबकि, होली के दिन रंग और गुलाल से लोग एक दूसरे को लगाकर एकता और प्रेम भाव जताते हैं!
होली-सा त्योहार न मिलता, लंदन और शंघाई में।
आता है आनंद बहुत ही, होली की ठंडाई में।।
मेरे पिता जी हर साल नया फगुआ गीत लिखते थे .
......होली में मिलते सभी बैर भाव बिसराय......
गाव का माहौल बड़ा ही रोचक हो जाता था . नियमित रूप से फगुआ गीत अलग अलग व्यक्ति के घर होता था .अधिकांश लोग छुट्टी लेकर गाव आ जाते थे . गाव का वातावरण बड़ा ही रोचक और प्रेम मय हो जाता था .
श्री राम छबीला तिवारी होली में गाव अवश्य आते थे , ढोलक की जिम्मेदारी उनकी ही होती थी . उनके अनुज श्री हरी शंकर तिवारी ढोलक की जिम्मेदारी उनकी अनुपस्थिति में सँभाल लेते थे .
बड़ा आनंद आता था , श्री राज किशोर तिवारी जो वाराणसी में श्री शीतल तिवारी के साथ कार्यरत थे प्रत्येक सप्ताह शनिवार को आते ही थे , क्या समय था ,आभाव था लेकिन प्रेम का सागर हमेशा हिलोरें मारता रहता था.श्री रमाशंकर तिवारी बहुत मस्त स्ववभाव के व्यक्ति थे ,परमात्मा ने उन्हें बहुत खूबियों के साथ नवाजा था .क्या समय था ????
होली के दिन भांग बनती थी , सबलोग प्रेम से भांग का पान करते थे , कोई दबाव नहीं होता था सब लोग सबकी क्षमता जानते थे . बाद में चर्चा होती थी किसको किसको चढ़ गया है
-----हँसते हँसते बुरा हाल हाल हो जाता था मालपूवा का सेवन करने से भांग का प्रभाव द्विगुणित हो जाता था .....
श्री काशी नाथ तिवारी ( संत जी ) विशेष आकर्षण होते थे भांग का नशा उनको बहुत चढ़ाता था और ज्ञान का अक्षय्य भंडार खुल जाता, हमलोग जब दरवाजे दरवाजे फ़ाग गानेवाले घूमते थे , संत जी के ज्ञान और नशा का अद्भुत आनंद आता था , होली बीतते बीतते नशा भी उतरने लगता थे .
झूम रहे सब गीतों पर।
डाल रहे रंग मीतों पर।।
कपड़े रंगे, रंगे चौबारे, कुछ जन लगे सफ़ाई में।
होली-सा त्योहार न मिलता, लंदन और शंघाई में।।
श्री राम लक्षण तिवारी विशेष रूप से इस त्यौहार का आनंद उठाते थे , शायद भांग बनवाने की परंपरा का उन्होंने ही शुरू किया था , पहले का पता नहीं ...........
इस त्यौहार पर वे सब लोग याद आ रहे हैं जो अब हमारे बीच नहीं हैं श्री लखन किशोर तिवारी,श्री राम हर्ष तिवारी , श्री राधाकृष्ण तिवारी, श्री रामनरेश तिवारी , श्री राम आसरे तिवारी .............
दिल भर आया अभी अभी सोनू और पार्थेश्वर का हमारे बीच से अचानक निकल जाना ......बहुत दुखद और कष्ट दायक रहा .........
समझ में नहीं आ रहा है ,,,,,,,,दुनिया बनानेवाले काहे को दुनिया बनाई.......

फिर भी संतोष होता है वे सब लोग जो यह होली देखने के लिए हम सब के बीच उपलब्ध हैं ....अपने गाओं का इतिहास लिखने का उत्तरदायित्व युवा पीढ़ी पर है... आने वाली पीढ़ी जब ढुढ़ेगी तो उन्हें जब निराशा हाथ लगेगी .....
मेरे पिताजी श्री अवधेश कुमार तिवारी ने श्री गजाधर तिवारी जी की सहायता से गाव का कुर्सी नामा तैयार किया था .... हम सबका सौभाग्य है की हमारे बुज़ुर्ग श्रद्धेय श्री बाँके बिहारी तिवारी 91 वर्ष की उम्र में भी हमारे ऊपर छत्र की भांति उपस्थित हैं ...इस सुयोग का लाभ उठाया जाय
श्री जनार्दन तिवारी ने काली माई के मंदिर का निर्माण कराकर इतिहास बना दिया , इसके लिए उनके बड़े भ्राता और प्रेरणा स्रोत श्री योगेन्द्र तिवारी का भी अभिनन्दन करता हूँ ...
उन तमाम को नमन है जिन्होंने अपने आशीर्वचनों से सिंचित किया है ....
होली के शुभ अवसर आप सबको बहुत बहुत बढ़ायी,प्रणाम यथायोग्य आशीष शुभ कामना स्वीकार करें....



मानस रोगी

मानस रोगी





रामचरिस मानस कल्पना नहीं है, महान इतिहास है . इतिहास पुराने पड़ जाते हैं . इतिहास के पात्र सामने नहीं होते .रामचरिस मानस के पत्रों का समाज प्रत्यक्ष दर्शन करता है, दर्पण की भाति वह नित्य नविन एवं प्रासंगिक है . बहार से कोई व्यक्ति जैसा दिखाई देता है , भीतर से वैसा ही हो ऐसा नहीं है .
व्यक्ति का शरीर जब अस्वस्थ हो हो उपभोग की सारी वस्तुएं उपलब्ध होने पर भी उपयोग नहीं कर पता है बल्कि दुखी रहता है . मन का स्वस्थ्य अति आवश्यक है .
गरुण जी ने ८ प्रश्न भुसुंडि जी किये , अंतिम प्रश्न था
मानस वेग कहहुँ समुझाई
अंत में मानस वेग का प्रश्न क्यों किये ??
होना चाहिए था बीच में आता , वैसे भी मान्यता है मधुरेण समापयेत्
मानव व्यक्ति के मन की समस्याओं का समाधान करता है . शरीर में तपेदिक हो जाय तो यह देखने की कोशिस करें हमरे मन में तो तपेदिक नहीं हो गया है ??
पर दुःख देखि जरनि सो होई , कुष्ठ दुस्टता मन कुटिलाई
मन के रोग की दवा बहुत कठिन है , क्योंकि मन के रोगी को रोग अपने में नहीं सामने वाले दिखाई देता है . दोष हम दूसरे में देखने की कोशिश करतें हैं . ऐसी स्थिति में हमें वैद्य या डाक्टर के पास जाने की आवश्यकता है . दूसरों के दुःख को देखकर हमें अगर आपको कष्ट हो हो रहा है तो किसी डाक्टर से पूछने की आवश्यकता नहीं है . कुछ लोग तो ऐसे होते हैं जिन्हें दूसरे का सुख अच्छा तो नहीं लगता है पर मन मर कर रह जाते हैं . दूसरे प्रकार के रोगी वे हैं इतने से ही हार नहीं जाते बल्कि
बल्कि सामने वाले के सुख को समाप्त कर देने का षड़यंत्र करते रहते हैं . मानस रोगों के सन्दर्भ में यह रोग टीबी के साथ कोढ़ होने जैसा है .

शराब

शराब

शराब: यह अरबी का शब्द है जिसका अर्थ शर-माने, बुराई तथा आब माने पानी अर्थात् वह पानी जो बुराईयों की जड़ है।
 गाव में एक बुजुर्ग व्यकति बता रहे थे पहले के ज़माने में कोई आदमी अगर शराब पी लेता था तो दिन में गाव नहीं आता था , सायं काल गाव आकर गाव के बाहर रुक जाता था , बच्चों को बुलाकर पता करता किसी के घर कोई रिस्तदार तो नहीं आया है ??

फिर छिपते छिपाते रात के अँधेरे में अपने घर आ जाता था . कितना जमाना बदल गया आज छोटे छोटे बच्चे खुलेआम किसी भी जगह जाम छलकते थोड़ा भी शर्म नहीं करते ,


बड़ा दुःख होता है . संस्कारों और चरित्र जिस तरह से ह्रास हो रहा है , बहुत मुश्किल हो गया है ऐसा व्यक्त्ति ,ऐसा समाज मिलाना जो सचमुच इसको दिल से विरोध की हिम्मत कर सके. दिल की वेदना कागज पर उतरने की कोशिश कर रहा हूँ, शायद यह मुश्किल से किसी को अच्छी लगेगी लेकिन अंतरात्मा की आवाज से
 लिख रहा हूँ  .





 महात्मा गांधी कहते थे शराब शारीरिक, मानसिक, नैतिक और आर्थिक दृष्टि से मनुष्य को बर्बाद कर देती है। शराब के नशे में मनुष्य दुराचारी बन जाता है वही चेहरा जो शराब पीने से पहले प्यारा, आकर्षक, प्रसन्न, विचारशील लगता था वही चेहरा शराब पीने के बाद घृणास्पद, निकृष्ट, राक्षसों के समान खूंखार, असन्तुलित, अनियंत्रित और वासनात्मक भूखे भेडि़ये के समान लगता है। शराबी का न शरीर पर नियन्त्रण है, न वाणी पर, न दृष्टि पर नियंत्रण है न विचारों पर कोई नियंत्रण है। शराब के साथ व्यक्ति मांस, जुआ तथा वैश्यावृति में फंस जाता है। यदि हम सड़क दुर्घटना मैं होने वाली 1 लाख 28 हजार 914 व्यक्ति जो पिछले वर्ष (2009) में सड़क दुर्घटनाओं मरें, उन पर रिसर्च किया गया तो पाया गया कि उनमें से 70 प्रतिशत दुर्घटनायें चालक की भूल या लापरवाही के कारण होती हैं चालक की लापरवाही से होने वाली भूलों में एक बड़ी संख्या उनकी है जो किसी न किसी नशे के कारण गाड़ी चला कर दुर्घटना करते हैं। हत्याओं तथा अपराधों जिसमें चोरी, डकैती, छीना-झपटी, मारपीट, छेड़-छाड़ व बलात्कार आदि के सभी मामलों में 50 प्रतिशत से अधिक मामलों का मूल कारण शराब पाई गई है अधिकांश अपराध् शराब के नशे मैं किये जाते हैं। शराब माफिया मिलावटी, जहरीली शराब के कारण हजारों व्यक्ति प्रतिवर्ष काल के ग्रास बनते हैं। शराब से जितने राजस्व की प्राप्ति होती हे उससे अधिक धन खर्च तो शराब के कारण होने वाले अपराध की जांच, अपराधियों के रखरखाव शराब के कारण होने वाले दंगे-फसाद, लड़ाई-झगड़े, बलात्कार की रोकथाम, दुर्घनाओं की रोकथाम, कानून व्यवस्था, बनाये रखना, कार्य क्षमता की हानि, कार्य दिवसों की कमी के कारण सकल घरेलू उत्पाद में होने वाली कमी, जेल व्यवस्था व शराब के कारण होने वाली बिमारियों की रोकथाम पर खर्च हो जाता है। शराब के रोगियों में 27 प्रतिशत मस्तिष्क रोगों से, 23 प्रतिशत पाचन-तन्त्र के रोगों से, 26 प्रतिशत फेफड़ों के रोगों से ग्रसित रहते हैं। भारत के पागलखानों में 60 प्रतिशत् वो लोग हैं जो मादक पदार्थों के कारण पागल हुये। शराब व इसके उत्पाद बीयर इत्यादि दुष्प्रभाव शराब की हानियां- o पाचन तंत्र पर प्रभाव – शराब से पाचन-क्रिया मन्द हो जाती है इससे अमाशय में सूजन आती है तथा कब्ज होती है अमाशय में लगातार सूजन होने से वह अल्सर में बदल जाती है। o लीवर पर प्रभाव – इससे लीवर पर सूजन/फैट्टी लीवर हो जाता है या लीवर सिकुड़कर ऐंठ जाता है अधिक शराबियों का लीवर बढ़ जाता है तथा लीवर सिरोसिस या हैपेटाईटिस-सी नामक रोग होकर व्यक्ति की मौत भी हो सकती है। o गुर्दे पर प्रभाव – शराब से गुर्दों की कोशिकायें मृत (डैड ) होने लगती है। वे रक्त को शुद्ध करना बन्द कर देती है, गुर्दे सिकुड़कर छोटे हो जाते हैं। o हार्ट पर प्रभाव – शराब से हार्ट की नस-नाडि़यां सख्त हो जाती हैं, नाडि़यां फैल जाती है उनके अन्दर ब्लोकेज आती है जिससे पहले स्थाई ब्लड़-प्रेशर तथा बाद में कभी हार्ट अटैक हो सकता है। यह मिथ्या धरणा है कि थोड़ी मात्रा में शराब हार्ट के रोगियों के लिए लाभदायक है। o मस्तिष्क पर दुष्प्रभाव – मस्तिष्क में भ्रम की स्थिति पैदा होती है निर्णय क्षमता खत्म होकर वाणी पर, व्यवहार पर, आचरण पर मस्तिष्क का नियन्त्राण समाप्त हो जाता है। o शरीर पर अन्य प्रभाव – शराब पीने से कैंसर पैदा होने की सम्भावना कई गुणा बढ़ जाती है। असमय बुढ़ापा आता है, चेहरे पर झुर्रियां आती है। शराबी व्यक्ति का मस्तिष्क पर नियंत्रण न होने से वह आत्म-हत्या भी कर लेता है।

गंगा आरती ,वाराणसी

गंगा आरती ,वाराणसी

बनारस जिसे बना बनाया रस कहते हैं ,वाराणसी दो नदियों के बिच बसा है वरुणा तथा असी इसीलिए इसका नाम (वरुणा + असी) = वाराणसी पडा है।


वाराणसी में गंगा तट पर अनेक सुंदर घाट बने हैं, ये सभी घाट किसी न किसी पौराणिक कथा से संबंधित हैं। वाराणसी के घाट गंगा नदी के धनुष की आकृति होने के कारण मनोहारी लगते हैं। सभी घाटों के पूर्वार्भिमुख होने से सूर्योदय के समय घाटों पर पहली किरण दस्तक देती है। उत्तर दिशा में राजघाट से प्रारम्भ होकर दक्षिण में अस्सी घाट तक चौरासी (84) से अधिक घाट हैं।

शिव नगरी काशी के गंगा घाटों की महिमा न्यारी है, प्राचीन नगर काशी पूरे विश्व में सबसे पवित्र शहर है, धर्म एवं संस्कृति का केन्द्र बिन्दु है।  गंगा केवल काशी में ही उत्तरवाहिनी हैं तथा शिव के त्रिशूल पर बसे काशी के लगभग सभी घाटों पर शिव स्वयं विराजमान हैं।
 ये घाट लगभग 4 मील लम्बे तट पर बने हुए हैं। । इन्हें सामूहिक रूप से 'पंचतीर्थ' कहा जाता है। ये हैं असी घाट, दशाश्वमेध घाट, आदिकेशव घाट, पंचगंगा घाट तथा मणिकार्णिका घाट। वाराणसी के कई घाट मराठा साम्राज्य के अधीनस्थ काल में बनवाये गए थे। वाराणसी के संरक्षकों में मराठा, शिंदे (सिंधिया), होल्कर, भोंसले और पेशवा परिवार रहे हैं। वाराणसी में अधिकतर घाट स्नान-घाट हैं, कुछ घाट अन्त्येष्टि घाट हैं। महानिर्वाणी घाट में महात्मा बुद्ध ने स्नान किया था।  थी।
कहा जाता है कि तुलसीदास ने अपना आख़िरी समय यहीं व्यतीत किया था।
इस घाट का नाम पहले 'लोलार्क घाट' था।
हरिश्चंद्र घाट

हरिश्चंद्र घाट का संबंध राजा हरिश्चंद्र से है।
सत्यप्रिय राजा हरिश्चंद्र के नाम पर यह घाट वाराणसी के प्राचीनतम घाटों में एक है।
इस घाट पर हिन्दू मरणोपरांत दाह संस्कार करते हैं।

दशाश्वमेध घाट

यह घाट गोदौलिया से गंगा जाने वाले मार्ग के अंतिम छोर पर पड़ता है।
प्राचीन ग्रंथो के मुताबिक राजा दिवोदास द्वारा यहाँ दस अश्वमेध यज्ञ कराने के कारण इसका नाम 'दशाश्वमेध घाट' पड़ा।
एक अन्य मत के अनुसार नागवंशीय राजा वीरसेन ने चक्रवर्ती बनने की आकांक्षा में इस स्थान पर दस बार अश्वमेध कराया था।


                                                          दशाश्वमेध घाट
  
यह घाट गोदौलिया से गंगा जाने वाले मार्ग के अंतिम छोर पर पड़ता है।
प्राचीन ग्रंथो के मुताबिक राजा दिवोदास द्वारा यहाँ दस अश्वमेध यज्ञ कराने के कारण इसका नाम 'दशाश्वमेध घाट' पड़ा।
एक अन्य मत के अनुसार नागवंशीय राजा वीरसेन ने चक्रवर्ती बनने की आकांक्षा में इस स्थान पर दस बार अश्वमेध कराया था।
दिन ढल गया ..........रात होने को है

दशाश्वमेध घाट  पर  गंगा आरती की तैयारियां प्रतिदिन बड़े धार्मिक रूप से होती हैं शायद शाम करीब साढ़े छह बजे के बाद  आरती देखने योग्य होती है .
नाव में बैठकर एक दम नजदीक से गंगा आरती देखने का अवर्णीय आत्मिक सुख मिलता है.






यदि आप वाराणसी जा रहे हैं तो किसी भी कीमत पर दशाश्वमेध घाट पर प्रतिदीन होनेवाली विश्व प्रसिद्द गंगा आरती में जरूर शामिल हों ………..अन्यथा आप एक परालौकिक एवं अद्भूत अनुभूति से वंचित रह जायेंगे।

परशुराम धाम, सोहनाग ( Parashuramdham Sohnag)

परशुराम धाम, सोहनाग ( Parashuramdham Sohnag)

गुरुरेको जगत्सर्वं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् |गुरोः परतरं नास्ति तस्मात्संपूजयेद् गुरुम् ||

ब्रह्माविष्णुशिव सहित समग्र जगत गुरुदेव में समाविष्ट है | गुरुदेव से अधिक और कुछ भी नहींहैइसलिए गुरुदेव की पूजा करनी चाहिए | (209)

ज्ञानं विना मुक्तिपदं लभ्यते गुरुभक्तितः |गुरोः समानतो नान्यत् साधनं गुरुमार्गिणाम् ||

गुरुदेव के प्रति (अनन्यभक्ति से ज्ञान के बिना भी मोक्षपद मिलता है | गुरु के मार्ग पर चलनेवालोंके लिए गुरुदेव के समान अन्य कोई साधन नहीं है | (210)


परशुराम धाम सोहनाग

परशुराम धाम ,सोहनाग,तहसील सलेमपुर जनपद   देवरिया ,  उत्तर प्रदेश ,इंडिया

 सोहनाग धाम की कथा भगवान  परशुराम से जुडी हुई है. कहते हैं धनुष यज्ञ के पश्चात परशुराम जी जनकपुर से चल दिए ,सोहनाग आते आते  रात हो गयी सोहनाग में रात्रि में विश्राम किये सुबह पोखरा (सरोवर) में स्नान किये , तपस्या की दृष्टि से सर्वथा उपयुक्त  इस मनोरम स्थान पर कुछ काल निवास किये .

वे  त्रेतायुग में रामावतार के समय शिवजी का धनुष भंग होने पर आकाश-मार्ग द्वारा मिथिलापुरी पहुँच कर प्रथम तो स्वयं को "विश्व-विदित क्षत्रिय कुल द्रोही" बताते हुए "बहुत भाँति तिन्ह आँख दिखाये" और क्रोधान्ध हो "सुनहु राम जेहि शिवधनु तोरा, सहसबाहु सम सो रिपु मोरा" तक कह डाला। तदुपरान्त अपनी शक्ति का संशय मिटते ही वैष्णव धनुष श्रीराम को सौंप दिया और क्षमा याचना करते हुए "अनुचित बहुत कहेउ अज्ञाता, क्षमहु क्षमामन्दिर दोउ भ्राता" तपस्या के निमित्त वन को लौट गये। रामचरित मानस की ये पंक्तियाँ साक्षी हैं- "कह जय जय जय रघुकुलकेतू, भृगुपति गये वनहिं तप हेतू"।

सोहनाग की कथा शुरू होती है जब एक  राजा अपनी सेना एवं सचिवों के साथ गुजर रहा था बड़ी प्यास लगी थी , सचिव ने सोचा यहाँ जंगल के बीच में कुछ पछि मंडरा रहे हैं वहां शायद कोई जल का स्रोत होगा . पानी  मिल गया , पात्र में भरकर जल लाया राजा को दिया.

राजा के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब उसकी प्यास तो बुझी ही , उस पानी से हाथ धोने के कारन उसका चार्म रोग भी समाप्त हो गया.राजा अपनी सेना के साथ यहीं रुक गए और यह पता करने के लिया की रहस्य क्या है ??
खुदाई शुरू हो गयी ..........भव्य सरोवर तो बन ही गया ,  अत्यंत दुर्लभ मूर्तियां खुदी से प्राप्त हुईं.

खुदाई से प्राप्त वे मूर्तियां इस प्रकार हैं


                                               श्री नारायण श्री



                                 श्री परशुराम  जी

परशुराम त्रेता युग (रामायण काल) के एक मुनि थे। उन्हें भगवान विष्णु का छठा अवतार भी कहा जाता है। पौरोणिक वृत्तान्तों के अनुसार उनका जन्म भृगुश्रेष्ठ महर्षि जमदग्नि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्टि यज्ञ से प्रसन्न देवराज इन्द्र के वरदान स्वरूप पत्नी रेणुका के गर्भ से वैशाख शुक्ल तृतीया को हुआ था। वे भगवान विष्णु के आवेशावतार थे। पितामह भृगु द्वारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम, जमदग्नि का पुत्र होने के कारण जामदग्न्य और शिवजी द्वारा प्रदत्त परशु धारण किये रहने के कारण वे परशुराम कहलाये। आरम्भिक शिक्षा महर्षि विश्वामित्र एवं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ ही महर्षि ऋचीक से सारंग नामक दिव्य वैष्णव धनुष और ब्रह्मर्षि कश्यप से विधिवत अविनाशी वैष्णव मन्त्र प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश गिरिश्रृंग पर स्थित भगवान शंकर के आश्रम में विद्या प्राप्त कर विशिष्ट दिव्यास्त्र विद्युदभि नामक परशु प्राप्त किया। शिवजी से उन्हेंश्रीकृष्ण का त्रैलोक्य विजय कवच, स्तवराज स्तोत्र एवं मन्त्र कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीर्थ में किये कठिन तप से प्रसन्न हो भगवान विष्णु ने उन्हें त्रेता में रामावतार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पर्यन्त तपस्यारत भूलोक पर रहने का वर दिया।

मदिर का निर्माण राजा सोहन ने कराया इसीलिए सोहनाग नाम पड़ा . यहाँ एक बड़ा यज्ञ हुआ जिसमें मंत्रो द्वारा आवाहित अग्नि देव को प्रगट होनाथा ,बहुत समय बीतता जा रहा था  , मंत्र पाठ हो ही  रहा था लेकिन अग्नि देव प्रगट नहीं हो रहे थे .

अंततः कुछ लोग मइल देवरहा बाबा के आश्रम गए और निवेदन किये , अग्नि देवता प्रगट नहीं हो रहे हैं . देवरहा बाबा ने कहा आप लोग चलें मैं आता हूँ  उनके पहुंचने के पूर्व ही बाबा आ गए लोगों से पूछे

अग्नि देव प्रगट नहीं हो रहे ????


यज्ञ कुण्ड में हवन की आहुति किये और अग्नि देव प्रगट हो गए आग की लपटें जलती हुई आकाश तक गयी और यज्ञ शुरू हो गया , बाबा अंतर ध्यान हो गए


यहाँ वाराणसी से श्री कमल नयन शुक्ल , वेदाचार्य , जो गुरु जी के नाम से प्रसिद्ध थे , आये और इस तपो भूमि को वेद शिक्षा से और उज्जवल बना दिए . उनके बंशल आज भी उस परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं.


 इस ऐतिहासिक स्थान को विकसित करने की आवश्यकता  है . यहाँ पर प्रसिद्द एक्तिजिया का मेला लगता था  जो एक महिले तक चलता था ,जिसमें इस क्षेत्र के लोग बड़े मनोयोग से सम्मिलित होते थे . सलेमपुर,लार,बरहज का थाना व्यवथा में लगा रहता था . बहुत दूर दूर से व्यापारी आते थे और इस मेले में ही लोग शादी के बर्तन,लकड़ी का फर्नीचर ,मसाला, कपड़ा , यहाँ तक की विवाह में आवश्यक सभी सामान की खरीदारी कर लेते थे . हर साल यह मेला बढ़ता जा रहा था . एक साल उपद्रवी तत्वों ने हिंदी मुस्लिम दंगा करा दिया . उसी साल से ये मेला टूट गया .अब मेले की दशा देखकर लोग इतिहास की बात करते हैं .

शिक्षा के क्षेत्र में यहाँ संभावित विकास नहीं हो पाया है . पोखरा भी दयनीय स्थिति में है .जहा सालों साल जल भरा रहता था , पूरा सरोवर कमल के पत्तों और  फूलों से  भरा रहता था , जलाभाव के प्रभाव से  प्रभावित हो गया है .






श्री परशुराम चण्डिका वेद विद्यालय , सोहनाग एवं पौऱणक धाम श्री परशुराम मंदिर ,सोहनाग ,देवरिया ,उत्तर प्रदेश  इस पौराणिक स्थान की महत्ता को द्विगुणित कर देती हैं.

ॐ  जय परशुराम

 https://en.wikipedia.org/wiki/Sohnag,_Salempur