सोमवार, 21 मार्च 2016

गंगा आरती ,वाराणसी

गंगा आरती ,वाराणसी

बनारस जिसे बना बनाया रस कहते हैं ,वाराणसी दो नदियों के बिच बसा है वरुणा तथा असी इसीलिए इसका नाम (वरुणा + असी) = वाराणसी पडा है।


वाराणसी में गंगा तट पर अनेक सुंदर घाट बने हैं, ये सभी घाट किसी न किसी पौराणिक कथा से संबंधित हैं। वाराणसी के घाट गंगा नदी के धनुष की आकृति होने के कारण मनोहारी लगते हैं। सभी घाटों के पूर्वार्भिमुख होने से सूर्योदय के समय घाटों पर पहली किरण दस्तक देती है। उत्तर दिशा में राजघाट से प्रारम्भ होकर दक्षिण में अस्सी घाट तक चौरासी (84) से अधिक घाट हैं।

शिव नगरी काशी के गंगा घाटों की महिमा न्यारी है, प्राचीन नगर काशी पूरे विश्व में सबसे पवित्र शहर है, धर्म एवं संस्कृति का केन्द्र बिन्दु है।  गंगा केवल काशी में ही उत्तरवाहिनी हैं तथा शिव के त्रिशूल पर बसे काशी के लगभग सभी घाटों पर शिव स्वयं विराजमान हैं।
 ये घाट लगभग 4 मील लम्बे तट पर बने हुए हैं। । इन्हें सामूहिक रूप से 'पंचतीर्थ' कहा जाता है। ये हैं असी घाट, दशाश्वमेध घाट, आदिकेशव घाट, पंचगंगा घाट तथा मणिकार्णिका घाट। वाराणसी के कई घाट मराठा साम्राज्य के अधीनस्थ काल में बनवाये गए थे। वाराणसी के संरक्षकों में मराठा, शिंदे (सिंधिया), होल्कर, भोंसले और पेशवा परिवार रहे हैं। वाराणसी में अधिकतर घाट स्नान-घाट हैं, कुछ घाट अन्त्येष्टि घाट हैं। महानिर्वाणी घाट में महात्मा बुद्ध ने स्नान किया था।  थी।
कहा जाता है कि तुलसीदास ने अपना आख़िरी समय यहीं व्यतीत किया था।
इस घाट का नाम पहले 'लोलार्क घाट' था।
हरिश्चंद्र घाट

हरिश्चंद्र घाट का संबंध राजा हरिश्चंद्र से है।
सत्यप्रिय राजा हरिश्चंद्र के नाम पर यह घाट वाराणसी के प्राचीनतम घाटों में एक है।
इस घाट पर हिन्दू मरणोपरांत दाह संस्कार करते हैं।

दशाश्वमेध घाट

यह घाट गोदौलिया से गंगा जाने वाले मार्ग के अंतिम छोर पर पड़ता है।
प्राचीन ग्रंथो के मुताबिक राजा दिवोदास द्वारा यहाँ दस अश्वमेध यज्ञ कराने के कारण इसका नाम 'दशाश्वमेध घाट' पड़ा।
एक अन्य मत के अनुसार नागवंशीय राजा वीरसेन ने चक्रवर्ती बनने की आकांक्षा में इस स्थान पर दस बार अश्वमेध कराया था।


                                                          दशाश्वमेध घाट
  
यह घाट गोदौलिया से गंगा जाने वाले मार्ग के अंतिम छोर पर पड़ता है।
प्राचीन ग्रंथो के मुताबिक राजा दिवोदास द्वारा यहाँ दस अश्वमेध यज्ञ कराने के कारण इसका नाम 'दशाश्वमेध घाट' पड़ा।
एक अन्य मत के अनुसार नागवंशीय राजा वीरसेन ने चक्रवर्ती बनने की आकांक्षा में इस स्थान पर दस बार अश्वमेध कराया था।
दिन ढल गया ..........रात होने को है

दशाश्वमेध घाट  पर  गंगा आरती की तैयारियां प्रतिदिन बड़े धार्मिक रूप से होती हैं शायद शाम करीब साढ़े छह बजे के बाद  आरती देखने योग्य होती है .
नाव में बैठकर एक दम नजदीक से गंगा आरती देखने का अवर्णीय आत्मिक सुख मिलता है.






यदि आप वाराणसी जा रहे हैं तो किसी भी कीमत पर दशाश्वमेध घाट पर प्रतिदीन होनेवाली विश्व प्रसिद्द गंगा आरती में जरूर शामिल हों ………..अन्यथा आप एक परालौकिक एवं अद्भूत अनुभूति से वंचित रह जायेंगे।

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